एमबीएम न्यूज़/मंडी
हिमाचल प्रदेश की राजनीति में चाणक्य कहे जाने वाले पूर्व केंद्रीय संचार राज्य मंत्री पंडित सुखराम ने एक बार फिर कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। ऐसा माना जा रहा है कि इस बात का चुनाव राजनीति के चाणक्य की असली अग्नि परीक्षा करवाएगा।
पंडित सुखराम का राजनीति जीवन
93 वर्ष की आयु वाले पंडित सुखराम की शुरूआत बतौर सरकारी कर्मचारी हुई। उन्होंने 1953 में नगर पालिका मंडी में बतौर सचिव अपनी सेवाएं दी। इसके बाद 1962 में मंडी सदर से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते। 1967 में इन्हें कांग्रेस पार्टी का टिकट मिला और फिर से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। इसके बाद पंडित सुखराम ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने सदर विधानसभा क्षेत्र से 13 बार चुनाव लड़ा और जीत हासिल की।
पंडित सुखराम ने कभी हार का मुंह नहीं देखा। केंद्र में उनकी जरूरत महसूस होने पर उन्हें लोकसभा का टिकट भी दिया गया। वह लोकसभा का चुनाव भी जीते और केंद्र में विभिन्न मंत्रालयों का कार्यभार संभाला। 1984 में सुखराम ने कांग्रेस पार्टी के टिकट पर पहला लोकसभा चुनाव लड़ा और प्रचंड बहुमत के साथ संसद पहुंचे।
1989 के लोकसभा चुनावों में उन्हें भाजपा के महेश्वर सिंह से हार का सामना करना पड़ा। 1991 के लोकसभा चुनावों में सुखराम ने महेश्वर सिंह को हराकर फिर से संसद में कदम रखा। 1996 में सुखराम फिर से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। 1998 में कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने हिमाचल विकास कांग्रेस के नाम से अपनी पार्टी बनाई और लोकसभा का चुनाव लड़ा। हालांकि इसमें बुरी तरह से हार गए और उनकी पार्टी के सिर्फ एक सांसद ने जीत हासिल की।
1998 में पंडित सुखराम पर आय से अधिक संपत्ति मामले को लेकर सीबीआई ने छापे डाले थे। इसके बाद पंडित सुखराम को कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया गया। उन्होंने अपनी खुद की पार्टी बनाई, जिसका नाम दिया था “हिमाचल विकास कांग्रेस”। इस पार्टी ने पूरे प्रदेश में विधानसभा का चुनाव लड़ा और पांच सीटों पर जीत हासिल की। 1998 में प्रदेश में गठबंधन की सरकार बनी। पंडित सुखराम की हिविकां ने भाजपा को समर्थन देकर प्रेम कुमार धूमल को पहली बार मुख्यमंत्री बनाने में योगदान दिया।
पंडित सुखराम ने 2003 में अपना आखिरी विधानसभा का चुनाव लड़ा। फिर 2007 में सक्रिय राजनीति से सन्यास लेेकर अपनी राजनीतिक विरासत अपने बेटे अनिल शर्मा को सौंप दी। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान सुखराम का सारा परिवार भाजपा में शामिल हो गया। कारण बताया गया कांग्रेस पार्टी में हुआ अपमान। हालांकि भाजपा की सदस्यता सिर्फ अनिल शर्मा ने ही ली जबकि बाकी परिवार पार्टी के लिए काम करता रहा। पंडित सुखराम ने मंडी जिला की कुछ सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों के लिए प्रचार भी किया और वोट भी मांगे। उन्हें 10 में से 9 सीटों पर भाजपा को जीत मिली और यहां से कांग्रेस का सफाया हो गया।
अनिल शर्मा भारी मतों से जीतकर विधानसभा पहुंचे और उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया गया। 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए सुखराम के पोते आश्रय शर्मा ने टिकट के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, लेकिन भाजपा ने मौजूदा सांसद को ही टिकट दिया। इससे खफा होकर पंडित सुखराम अब दोबारा से अपने पोते संग कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। अब इनका पोता इनकी मंडी संसदीय क्षेत्र की राजनैतिक विरासत को संभालने के लिए मैदान में उतरने वाला है।
संचार क्रांति के मसीहा….
बतौर लोकसभा सदस्य पंडित सुखराम ने दूर संचार राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) के रूप में अपना आखिरी कार्यकाल देखा। इस दौरान पंडित सुखराम ने प्रदेश सहित देश भर में जो संचार क्रांति लाई आज भी उसका जिक्र होता है। आज लोगों के हाथ में जो मोबाइल फोन है उसे अगर पंडित सुखराम की देन कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा। पंडित सुखराम को एक तरह से संचार क्रांति का मसीहा माना गया।
18 चुनाव लड़े, 2 बार हुई हार…
पंडित सुखराम ने अपने राजनैतिक जीवन में 18 बार चुनाव लड़े। इनके नाम एक रिकार्ड दर्ज है। यह कभी भी विधानसभा का चुनाव नहीं हारे। मंडी सदर सीट पर इनके परिवार का आज तक एकछत्र राज चल रहा है। यहां से 13 बार खुद चुनाव लड़ा और जीता। जबकि बेटा चौथी बार यहां से विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे हैं।
सुखराम ने लोकसभा के पांच चुनाव लड़े जिनमें से 2 बार हार हुई। देश या प्रदेश में चाहे किसी भी राजनीतिक दल की लहर चली हो, इनका परिवार कभी विधानसभा का चुनाव नहीं हारा। मौके की नजाकत को भांपना और समय रहते निर्णय लेना पंडित सुखराम की खासियत रही है। शायद यही कारण है कि इन्हें राजनीति का चाणक्य कहा जाता है।
कभी नहीं पहुंच पाए सीएम की कुर्सी तक…
पंडित सुखराम हिमाचल प्रदेश के सीएम बनना चाहते थे, लेकिन यह संभव नहीं हो सका। इस बात को लेकर उनका हमेशा सीएम वीरभद्र सिंह के साथ 36 का आंकड़ा रहा। पंडित सुखराम की वरिष्ठता को पार्टी ने हमेशा नजरअंदाज किया और इस बात की टीस उनमें हमेशा रही। यही कारण था कि पंडित सुखराम ने अपना एक अलग दल बना दिया था, लेकिन उसके दम पर भी वह सीएम की कुर्सी तक नहीं पहुंच सके।
क्या होगा असर…
पंडित सुखराम के दोबारा कांग्रेस में शामिल होने से कई सियासी समीकरण बदले हैं। बात अगर मंडी संसदीय क्षेत्र की करें तो यहां पर अभी भी सुखराम के लाखों चाहवान मौजूद हैं। सुखराम के मैदान में उतरते ही यह चाहवान उनके साथ चल सकते हैं। इन्हें संचार क्रांति का मसीहा माना जाता है। जब कभी यह किसी कार्यक्रम में जाते हैं तो लोग इन्हें सुनने और देखने के लिए ऐसे ही उमड़ पड़ते हैं। लेकिन सुखराम का जादू बरकरार है या समाप्त हो चुका है, इसका पता प्रचार के दौरान और परिणामों से ही चल पाएगा। चुनाव का प्रचार शुरू हो चुका है।
अभी पंडित सुखराम अपने पोते के साथ चुनावी रण में नहीं उतरे हैं। जब वह चुनावी रण में उतरेंगे तो उसके बाद ही यह संकेत मिलना शुरू हो जाएंगे कि उनका कद अब राजनीति के क्षेत्र में कितना रहा है। परिणाम इस बात का स्पष्ट संकेत दे देंगे कि राजनीति का चाणक्य अब भी चाणक्य है या फिर उनका जादू समाप्त हो चुका है।