फागू (एसजे चौहान) : प्रदेश की संस्कृति को जीवित रखने में काष्ठकला का बहुत बड़ा योगदान है, मगर अफसोस कि सरकार की उदासीनता के चलते, प्रदेश की काष्ठकला को सहेजने वाले कलाकार अब न के बराबर रह गए हैं। यह कला हमारे सामाजिक जीवन का तब तक खास हिस्सा बनी रही, जब तक क्षेत्र में पौराणिक शैली में मंदिर बनते रहे। मगर जैसे ही कंकरीट से बने आधुनिक मंदिरों ने प्रवेश किया, न तो काष्ठकला बची और न ही काष्ठकला के बेहतरीन नमूनों से निर्मित हमारे मंदिर ही।
गुरू-शिष्यों के सामूहिक प्रयास से निर्मित काष्ठशिल्प के कुछ नमूने।कभी इन मंदिरों को बनाने का जिम्मा विशेष जाति के विशेष खानदान के पास हुआ करता था जो अब नाम के खानदान रह गए हैं। उन्होंने काष्ठशिल्प छोड़, अन्य व्यवसाय ग्रहण कर लिए हैं, ताकि वे अपने परिवार का पालन-पोषण कर, आधुनिकता भरा जीवन बिता सके। यदि इस कला को हाशिए पर ले जाने का दोष सरकार पर दे तो इसमें कोई दोराय नहीं होगी। सरकार ने कला, भाषा एवं संस्कृति विभाग खोल तो रखा है, मगर सरकार उस विभाग को आवश्यक बजट ही आबंटित नहीं करती।
बजट के अभाव में वे ऐसे कलाकारों को कैसे प्रोत्साहित करेंं, जो अभी भी गुमनामी के अंधेरे में अपनी काष्ठकला को बचाए हुए हैं। इस कला को नवजीवन देने के लिए विश्व प्रसिद्ध संगतराश प्रोफेसर एमसी सक्सेना ने अपने स्तर पर प्रयास करते हुए राजगढ़ क्षेत्र के काष्ठशिल्पी एसजे चौहान को स्थानीय काष्ठशिल्पयों को प्रशिक्षण देने का सुझााव दिया था, जिसके फलस्वरूप उन्होंने तीन शिष्यों को काष्ठशिल्प की बारीकियों से अवगत करवाया तथा कई नमूने भी बनवाए।
इन शिल्पकारों में मनोण गांव के विकास भारद्वाज, भाणत के ज्ञान प्रकाश एवं टालिया के संजय आदि शामिल हैं। चौहान ने सरकार से अनुरोध किया है कि मंदिरों को पारंपरिक शैली में बनवाने पर अनुदान दें और काष्ठश्ल्पि को फिर से पहचान दिलाने के लिए गुरू-शिष्य परंपरा को उचित मानदेय के साथ आरंभ करें।