दिनेश कुंडलस/शिमला
2019 के लोकसभा चुनाव में परिवारवाद की राजनीति फिर मुखर हुई है। प्रदेश की राजनीति में शायद ऐसा पहली बार हुआ है, जब कांग्रेस की पृष्ठभूमि वाले परिवार का एक बेटा भाजपा सरकार में मंत्री है, तो मंत्री जी का बेटा कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने को बेकरार है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पंडित सुखराम ने चाणक्य नीति का इस्तेमाल करते हुए तीसरी पीढ़ी को भी राजनीति में उतार दिया है।
हालांकि 2017 के लोकसभा चुनाव में प्रदेश निर्माता डॉ. वाईएस परमार के पोते ने भी बीजेपी का दामन थाम लिया था। इसके बाद पिता कुश परमार राजनीति में निष्क्रिय हो गए। लेकिन यहां तो दिलचस्प बात यह है कि परिवार के दोनों हाथों में ही लड्डू है। अगर यही राजनीतिक परिस्थितियां रहीं तो परिवार कभी भी विपक्ष में नहीं आएगा। सोशल मीडिया में नाटकीय तरीके से पंडित सुखराम व पोते आश्रय शर्मा की कांग्रेस में एंट्री पर खासा आक्रोश है।
गौर करने वाली बात यह है कि पंडित सुखराम व पोते के कांग्रेस में शामिल होने के बाद मंत्री अनिल शर्मा ने बेहद ही सधे तरीके से अपनी बात रखने का प्रयास किया, खुद को भाजपाई बताकर मंत्रिमंडल से इस्तीफे की बात सरकार के पाले में ही डाल दी। खुद इस्तीफा देने की पेशकश नहीं की। इससे भी साबित होता है कि परिवार दोनों ही तरफ से सत्ता के लड्डू खाना चाहता है। सवाल इस बात पर उठता है कि जब अनिल शर्मा ने साफ कर दिया है कि वो चुनाव प्रचार नहीं करेंगे तो नैतिकता के आधार पर इस्तीफा क्यों नहीं दे रहे हैं।
पंडित सुखराम का राजनीति में लगभग 56 साल का सफर है। इस सफर में पंडित जी ने 6 बार पाले बदले। इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की भी प्रतिक्रिया अहम है। सीएम ने कहा कि मंत्री ने इस्तीफे की पेशकश नहीं की है। लेकिन वो अपने स्तर पर पार्टी आलाकमान से बातचीत करेंगे। दिलचस्प बात यह भी है कि टिकट ही धर्म हो तो संकट कैसा। उल्लेखनीय है कि पंडित सुखराम के मंत्री बेटे अनिल शर्मा ने सीएम जयराम ठाकुर के समक्ष कहा था कि वो धर्मसंकट में हैं।
कुल मिलाकर लोकसभा चुनाव में सबसे दिलचस्प व नाटकीय घटनाक्रम को लेकर समूचे प्रदेश में जमकर चर्चा हो रही है। सोशल मीडिया के ट्रेंड में तो पंडित सुखराम के परिवार को आलोचनाओं का ही सामना करना पड़ रहा है।