एमबीएम न्यूज़/शिमला
व्यवस्था में अकसर IAS व HAS अधिकारियों पर राजनीतिक दलों का टैग लगता दिखता है। सरकार बदलते ही ताबड़तोड़ तरीके से तबादले शुरू हो जाते हैं। इस मिथ्या से 35 साल के आईएएस अधिकारी रितेश चौहान ने ऊपर उठकर दिखाया है। यह केवल ओर केवल काबलियत के दम पर ही संभव हुआ है। इसी वजह से कांग्रेस व भाजपा इस अधिकारी की अहम ओहदों पर सेवाएं लेना चाहते हैं।
11 जनवरी 1983 को चंबा की सिहुंता तहसील के टुंडी गांव में जब डॉ. चमन चौहान व डॉ. इंदु बाला के घर बेटे रितेश चौहान ने जन्म लिया था तो शायद परिवार ने इस बात की भी कल्पना नहीं की होगी कि 22 साल की उम्र में अपने बैच 2005 का सबसे युवा आईएएस बन जाएगा। इस बात की भी शायद कम ही उम्मीद होगी कि 33 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते बेटा चार जिलों में बतौर डीसी सेवाएं देगा। इसके बाद केंद्र में बड़ी जिम्मेदारी मिलेगी।
प्रदेश में भाजपा ने अपनी सरकार के दौरान आईएएस को बिलासपुर व लाहौल-स्पीति में बतौर उपायुक्त तैनात किया। सरकार बदली तो ट्रांसपोर्ट महकमे में निदेशक के पद पर ट्रांसफर कर दिया। पिछली कांग्रेस सरकार को भी इस बात का अहसास हो गया कि अधिकारी काबिल है। लिहाजा 2014 में सिरमौर का उपायुक्त बना दिया। इसी बीच कांगड़ा में एक अफवाह बड़ी चुनौती बन गई। फिर सरकार ने प्रदेश के सबसे बड़े जिला कांगड़ा की जिम्मेदारी इस अधिकारी को सौंप दी।
बमुश्किल एक साल कुछ महीने ही पूरे हुए थे कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने राज्य सरकार से आईएएस की डेपुटेशन मांगी। सरकार ने भी हामी भर दी। अब केंद्रीय मंत्री के निजी सचिव के तौर पर सेवाएं दे रहे है।
पिता की भी बखूबी निभाते हैं जिम्मेदारी
अपने माता-पिता की इकलौती संतान रितेश चौहान अब कुशल प्रशासक के अलावा पिता की जिम्मेदारी भी बखूबी निभाते हैं। बेटी देवांगना व बेटे अधिराज सिंह चौहान को पूरा वक्त देने की कोशिश करते हैं। बेटी तीन साल की है, वहीं बेटा पांच साल का हो चुका है। पत्नी देविका चौहान गृहणी के तौर पर हर कदम पर उनका हौंसला अफजाई करती है। कांगड़ा जैसे जिला में डीसी रहने के दौरान व्यस्तता का अंदाजा हर कोई लगा सकता है। अधिकारी की सोच देखिए, कांगड़ा में बतौर डीसी रहते एक बेटी को एक साल के लिए गोद लिया। अकसर गोद ली बेटी को मिलने भी जाते थे।
चंद उपलब्धियां एक नजर में….
सोचिए, 15 साल में सरकारी नौकरी में अगली प्रमोशन नहीं मिलती है, लेकिन साहब छोटे से जिला में डीसी बने, बेहतर कार्य किया तो बिलासपुर की कमान मिली। फिर सिरमौर, इसके बाद कांगड़ा। यानि 11 साल की नौकरी में चार से पांच साल डीसी की जिम्मेदारी निभाई। यह सब कुछ काबलियत के दम पर ही संभव हो पाया। दिल्ली में डेपुटेशन पर जाने का फैसला लिया। चाहते तो कांगड़ा में डीसी के पद को ही संभाले रखते, क्योंकि कोई भी आईएएस बड़े जिला में डीसी बनने का ही ख्वाब देखता है। परित्यागना भी बड़ी बात है।
डीसी रहते हुए ‘कांगड़ी दी मुन्नी तो ‘मुनिया दी धाम’ ऐसे अभियान चलाए जो राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आए। हरेक अधिकारी को एक-एक साल के लिए बेटियां गोद लेने के लिए प्रेरित किया। यहां बेटियों का गिरता लिंगानुपात बड़ी चुनौती था।
करीब दो साल से देश के स्वास्थ्य मंत्रालय में भी बेहतरीन सेवाएं दी हैं। इस दौरान मंत्रालय ने कई चर्चित योजनाओं को जनहित में लांच किया।
विगत उपलब्धियां
- स्मार्ट सिटी धर्मशाला व सैंट्रल यूनिवर्सिटी की फाइलों को तेजी से निपटाया।
- नशाखोरी के खिलाफ फिटनेस के संदेश ऐसे तरीके से दिए कि जनता प्रभावित हुई। कभी खुद दौड़ लगाने चल देते तो कभी साइकलिंग से युवाओं को प्रेरित करते। साइकलिंग के दौरान एक मामूली सी दुर्घटना भी हुई। मरहमपट्टी करने वाले परिवार को नहीं पता था कि डीसी उनके घर पर है।
- रैडक्रॉस का सॉफ्टवेयर तैयार करने पर नेशनल अवार्ड जीता।
- कांगड़ा जिला में 1.85 लाख केनाल का लैंड बैंक तैयार कर दिया।
- सिरमौर में नौ महीनों के दौरान उपलब्धियां बेमिसाल रही। यहां आईआईएम की स्थाई कक्षाएं शुरू करवाने के साथ-साथ मेडिकल कॉलेज की जमीन को भी अंतिम रूप दिलवाया। शक्तिपीठ त्रिलोकपुर में करोड़ों रुपए की लागत से बना म्यूजियम बेकार पड़ा था, इसे क्रियान्वित करके दिखाया। पांवटा में रैडक्रॉस के 11 साल से विवादित भवन को पूरा करने का भी कार्य किया।