वह बूढ़ी मां
-एक शाम तन्हा सा,
अपने ख्यालों में गुम, कहीं चला जा रहा था,
तभी आवाज आई,
सुना बेटा!
फिर आवाज आई,
मैंने, पलट कर देखा
टेढ़ी सी लकड़ी के सहारे
एक जिंदगी टिकी है
टिकी क्या,
बस! ढहने वाली है,
कभी भी ढह सकती है
दो कदम वापिस आया
उसे देखता रहा,
चेहरे की झुर्रियां,
सफेद चांदी जैसे बाल,
झुकी कमर, आंखें,
स्मंदर की गहराई लिए,
एक माई खड़ी थी,
मेरे सामने।
मैं डर सा गया,
कहीं कुछ मांग न ले,
क्योंकि मेरी भी हालत,
उस जैसी ही थी,
उसके कांपते लबों से,
अल्फाज निकले,
बेटा! मुझे सड़क पार करा दे,
मुझे कुछ सुकून हुआ,
हाथ पकड़ कर,
सड़क पार करा दी,
सड़क पार करते हुए-
मुझे दुआएं दे रही थी,
उसकी दुआएं,
मेरी श्रद्धा की झोली में,
मुझे कुछ वजन का,
अहसास करा रही थी,
मुझे लग रहा था,
कि मेरे पास भी, कीमती सा कुछ है,
इस अभावमय जीवन में,
खाली नहीं हूं मैं……
-मोहम्मद कय्यूम सैय्यद की कलम से……
पुस्तक: -चांद पर अब परियां नहीं रहती
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