राजगढ़ (एसजे चौहान)
पहाड़ी भाषा हमेशा से साहित्य जगत में डूबती-तैरती रही है परंतु पार नहीं हो सकी और अब तो डूबने के कगार पर खड़ी चंद सांसों की मेहमान है। स्थिति यह है कि पहाड़ी साहित्य को पढ़ने वालों की कमी तो है ही परंतु अब तो पहाड़ी बोलने वालों का भी अकाल पड़ने वाला है। उभरती पीढ़ियां पब्लिक स्कूलों में जा कर पहाड़ी ही नहीं हिंदी के स्थान पर भी अंग्रेजी में बात करना, शिक्षित होने का दंभ भरती हैं।
ऐसी स्थिति में भी कुछ रचनाकार स्थानीय पहाड़़ी भाषाओं में अपनी रचनाएं संजोए हुए हैं परंतु पारखी न मिलने के कारण गुमनामी के अंधेरे में घुटती जा रही हैं। ऐसी ही कुछ पहाड़ी रचनाएं “पहाड़ी मृणाल” के उपनाम से प्रसिद्ध दिवंगत संत आचार्य चंद्रमणि वशिष्ठ ने भी अपने युवाकाल में गढ़ी थी, जो पड़ी-पड़ी दीमक की भेंट चढ़ जाती यदि “हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम” जिसके वे स्वयं जन्मदाता थे, के कार्यकारी अध्यक्ष आचार्य ओमप्रकाश राही तथा अन्य सहयोगी, वशिष्ठ जी द्वारा रचित पहाड़ी गजलों को सुर-ताल में ढाल कर, सीडी के माध्यम से उन्हें लोगों के दिलों में जीवित रखने का सुंदर प्रयास न करते।
वशिष्ठ जी द्वारा रचित पहाड़ी गजलें किसी उर्दू शायर से किसी भी तरह से कम नहीं आंकी जा सकती। परंतु पहाड़ी भाषा के सीमित ज्ञाता होने के कारण ये गजलें उर्दू की तरह जन-जन की जुबान तक नहीं पहुंच सकी। इसी संदर्भ में उनकी दो पंक्तियां उनकी स्तरीयता का आभास करवाने के लिए काफी होगा।
उर्दू की एक गजल से पहले एक ‘शेर’ सभी ने सुना होगा “अब में समझा तेरे चेहरे पे तिल का मतलब, दौलते हुस्न पे दरबान बिठा रखा है”। अब इसी के बराबर का वजन रखता है, “पहाड़ी मृणाल” का पहाड़ी “शेर” “आखे मूले जो गेरे ओसो, तेरी यादो रे डेरे ओसेा”, यानि मेरी आंखों के नीचे जो काले घेरे दिखाई दे रहे हैं वास्तव में वे तेरी यादों ने डेरे डाले हुए हैं। जिस प्रकार तिल को दरबान की उपमा दी गई है उसी तरह आंखों के नीचे पड़े काले निशानों को किसी की याद की उपमा दी गई है।
उनकी रचनाओं में उर्दू की गजलों एवं हिंदी की कविताओं की तरह का भारीपन है परंतु उनकी पहाड़ी गजलों अथवा कविताओं को कौन तौले जब कि पहाड़ी रचनाओं के वे पहले रचयिता थे और उनके समकालीन कोई न था।
सीडी में उनकी याद के रूप में इस गजल के अलावा “गमों माए पली जिंदगी”, “रेके गे तुमें जो रिझदे लागे”, “प्यारो री बाटो दे दिलड़ू हामें लाए”, “पाई गोयणे दी पींगो”, “ढबदी बाटो दा लाया तुम“, ”घड़ी घड़ी मोड़ जोए“ तथा “जिंवदे जीवे जिवणा छाड़े राखा”, गजलें शामिल हैं। गजलों को स्वर दिया है डा देवराज शर्मा ने, बांसुरी की सुरीली धुन दी है हरिदत्त शर्मा ने, सितार से झंकृत किया है राजेश कुमार ने तथा ‘‘तिरकिट धा तिरकिट’’ है रामकिशन की।