नई दिल्ली, 24 मई: “कोरोना हऊआ नहीं है। न किसी वर्दी वाले को कोरोना डरा सकता है। वर्दी पहनी है तो फिर कोरोना से क्यों और कैसा डर? इससे बचाव को एहतियात हर किसी को बरतनी पड़ रही है। हां, कोरोना में 15-16 घंटे की ड्यूटी के बाद देर रात घर पहुंचती हूं।
तो सात साल का एकाग्र और पांच साल का श्रेष्ठ मुझसे मिलना चाहते हैं। सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन रखने के लिए मैं उनसे छिपती हूं। बच्चों को खुद से दूर करने के लिए सौ-सौ बहाने बनाती हूं। बच्चों से झूठ बोलती हूं। इस सबके बाद जब-जब सिपाही अमित का चेहरा सामने आता है, तो खुद को बेहद थका-टूटा और हारा-हारा सा महसूस करती हूं। अमित का दिल्ली पुलिस से बेहद कम उम्र में बिछुड़ना आज भी कंपा देता है और उसकी मौत हमेशा जिंदगी में एक कोना सूना ही रखेगी। जब ध्यान आता है कि, कोरोना ने अमित को हमसे छीन लिया है, तो शून्य में पहुंच जाती हूं।”
यह तमाम बेबाक मुंहजुबानी है विजयंता आर्य की। मूलत: नाभा (पंजाब) के किसान दंपत्ति बीरबल गोयल और शशि गोयल की छोटी बेटी विजयंता आर्य 2009 बैच अग्मूटी कैडर की आईपीएस हैं। इन दिनों वे उत्तर पश्चिमी दिल्ली जिले की डीसीपी (जिला पुलिस उपायुक्त) हैं। जबकि विजयंता के बड़े भाई दीपांकर गोयल आज भी नाभा में पिता के साथ खेती-किसानी में मशरुफ हैं।
एमसीएम डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ से ग्रेजुएशन करने वाली विजयंता बचपन और किशोरावस्था में खाकी वर्दी की हनक तो जानती थीं। आईपीएस क्या होता है? इसका ज्ञान दूर-दूर तक नहीं था। फिर भी जिद की धुनी विजयंता चौथे प्रयास में आईपीएस ही बनीं। स्कूल टाइम में वे खाकी वर्दी के बारे में सिर्फ यह जानती थीं कि, यह लोग (पुलिस वाले) गुंडों को पकड़ कर जेल भेजते हैं। बस इसी सोच ने ‘वर्दी-वाली’ यानि आईपीएस अधिकारी बना डाला।
आज विजयंता खुद दिल्ली में डीसीपी हैं। पहली बार दिल्ली कब देखी? पूछने पर बताती हैं 10वीं या बारहवीं में पढ़ती थी। तब एक बार पंजाब पब्लिक स्कूल, नाभा (पंजाब) का स्टूडेंट्स का टूर दिल्ली आया था। एक रात यहां रुककर निकल गये हम लोग। तब मन में आया था कि, यह शहर तो ‘भीड़’ का है। यहां आदमी और वाहन की भीड़ बराबर है। दोनों एक दूसरे में खोये रहते हैं। यहां के लोग कैसे रहते होंगे?”
आज खुद उसी बेइंतहाई भीड़ वाली दिल्ली के एक जिले की डीसीपी बनकर अब क्या सोचती हैं? पूछने पर विजयंता बोलीं, “अब दिल्ली की भीड़ ‘अपने लोग’ लगने लगे हैं। वे नागरिक जिनकी रक्षा-सुरक्षा और जिन्हें न्याय दिलाने की खातिर ही, मुझे आईपीएस की वर्दी पहनने को मिली है।”
हर आईपीएस के अरमान होते हैं कि वो, वर्दी पहनने के बाद यह करेगा वो करेगा? विजयंता आर्य क्या सोचती है? “सोचना क्या..कोरोना काल में 15-16 घंटे ड्यूटी दे रही हूं। सुबह 6-7 बजे जिंदगी डिपार्टमेंट की डेयली डायरी से शुरू करती हूं। रात करीब 12-1 बजे घर पहुंचने पर पांव थमते हैं।” कोरोना संक्रमण के अच्छे बुरे वे अनुभव जो जिंदगी में आखिरी दम तक साथ रहेंगे? पूछने पर विजयंता बोलीं, “दिन भर की कोरोना ड्यूटी के बाद जब आधी रात गये या 10-11 बजे रात को घर पहुंचती हूं तो एकाग्र और श्रेष्ठ (दोनो बेटे) लिपटने को दौड़ते हैं। उस वक्त दोनों बच्चों से मैं दूर घर में इधर उधर छिपने की कोशिश करती हूं। बच्चों के दादा(दीवान चंद आर्य) उन्हें ताकत से पकड़ते हुए मुझसे दूर घर में कहीं ले जाने की कोशिश करते हैं। ताकि वे सब किसी तरह से संक्रमण की चपेट में जाने-अनजाने न आ जायें। तब कलेजा मुंह को आता है कि, इस कोरोना के चलते मैं 15 घंटे दूर रहने के बाद भी बच्चों को छू नहीं सकती हूं। सिर्फ और सिर्फ कोरोना के कारण।”
अब तक करीब तीन महीने के लॉकडाउन और कोरोना-काल की दिल्ली पुलिस की नौकरी का सबसे खुशगवार और सबसे नागवार मौका? पूछने पर डीसीपी विजयंता आर्य ने कहा, “बच्चों को खुद से दूर भगाना और भारत नगर थाने के अपने बहादुर सिपाही अमित राणा की कोरोना संक्रमण से हुई मौत रुला जाती है। बच्चे, पति, परिवार, दोस्त तो साथ हैं। आज नहीं तो कल मिल लूंगी। अमित राणा को मैं और दिल्ली पुलिस इतनी छोटी उम्र में खो चुके हैं कि, बस पूछिये नहीं। अमित की मौत का गम अल्फाजों से बयान कर पाना बेईमानी सा लगता है। अक्सर सोचती हूं काश कोई अचानक सामने आकर कह दे, ‘मैडम अमित तो जीवित है।’ यह सब मगर बेईमान इंसानी मन को समझाने के फिजूल रास्ते हैं। सच और दु:ख को मिटाने की कोई रबड़ जमाने में बनी ही नहीं है। अमित को लेकर खुद के मन की व्यथा अपनों (पुलिस स्टाफ) के सामने महज इसलिए जाहिर नहीं करती कि, कहीं उनके सब्र का बांध टूट न जाये।”
कोरोना ने क्या दिखाया-सिखाया? पूछे जाने पर विजयंता बोलीं, “कोरोना काल में आधुनिक तकनीक ने मानवीय संबंधों को रिप्लेस किया। सोशल डिस्टेंसिंग की अहमियत कोरोना ने ही समझाई है। कोरोना ने ‘प्रोटोकॉल’ की ऐसी परिभाषा गढ़ दी है, जो सदियों बाद भी इतिहास के पीले पड़ चुके पन्नों से कोई नहीं मिटा पायेगा। कोरोना सिर्फ महामारी नहीं। हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बुरा इतिहास है। जिसकी यादें रुह कंपा जायेंगी।”
महिला डीसीपी और कोरोना वॉरियर आईपीएस अधिकारी विजयंता आर्य के ही अल्फाजों में, “पुलिस और पब्लिक दोनों को कोरोना-काल ने ही सिखाया-समझाया कि, हम एक दूसरे के कितने काम के हैं? इंसानी जिंदगी की नई प्राथमिकताएं कोरोना काल ने ही तय की हैं। कानून की नजर से देखने पर भले ही लॉकडाउन में पुलिस और पब्लिक के बीच गैप बढ़ा होगा, मगर सच यह है कि लॉकडाउन में ही हम दोनों (पुलिस और पब्लिक) दिल से एक दूसरे के करीब भी पहुंचे हैं। अब तक तीन महीने के कोरोना काल ने लोगों को तमाम जिंदगी भर की सीखें दे दी हैं। अचानक किसी के सामने जोखिम कैसे बढ़ सकता है? यह भी कोरोना ने सिखाया है।”
कोरोना काल की इन व्यस्तताओं में मां, पिता, भाई अन्य रिश्तेदारों के साथ कैसे संपर्क रख पा रही है? पूछने पर वे बोलीं, “उन सबको समझाना आसान है कि, वर्दी सबसे आगे है। मगर वर्दी को समझाना कतई वाजिब नहीं होगा कि, मेरे सामने वर्दी से पहले कोई इंसानी रिश्ता (मां-बाप, भाई, बहन) भी खड़ा है।”
विशेष बातचीत के अंत में पूछे जाने पर, “बीते कल की पंजाब के नाभा के किसान परिवार की बेटी और आज राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की महिला आईपीएस डीसीपी ने एक लाइन में लॉकडाउन के सन्नाटे और कोरोना के काले दिनों में क्या सीखा?” बेबाक विजयंता बोलीं, “लॉकडाउन के सूनेपन/सन्नाटे ने भीड़ वाली दिल्ली की गलियों में पेड़ पर बैठी कोयल की कू-कू सुनना-देखना, सिखा-दिखा दिया है। मुझे अपने कानों और अपनी आंखों।”
पति भी दिल्ली पुलिस में डीसीपी हैं। खुद भी जिला डीसीपी हैं। ऐसे में घर-परिवार दोनों छोटे बच्चों की जिम्मेदारी के बीच संतुलन का क्या फार्मूला? पूछने पर विजयंता बोलीं, “कोरोना काल में तो वर्दी और जनता सबसे आगे है। बाकी सबकुछ पीछे है। छोटा सा फार्मूला कोरोना की हर समस्या की काट है।”
–आईएएनएस